– सियाराम पांडे शांत
निजता का अधिकार एकबार फिर चर्चा में है। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने लखनऊ के जिलाधिकारी और पुलिस कमिश्नर को निर्देश देते हुए कहा कि वह 16 मार्च तक लखनऊ के विभिन्न चौराहों पर लगे सीएए विरोधी प्रदर्शनकारियों के पोस्टर हटाए और इसकी जानकारी रजिस्ट्रार को उपलब्ध कराए। न्यायालय ने इसे प्रदर्शनकारियों के निजता के अधिकार का हनन करार दिया। इलाहाबाद उच्च न्यायालय की इस राय में दम है। वैसे भी जबतक कोई दोष सिद्ध नहीं हो जाता, सरकार को सार्वजनिक स्तर पर उसे बेनकाब नहीं करना चाहिए। बेनकाब तो दोष सिद्ध अभियुक्तों को भी नहीं करना चाहिए क्योंकि हर हाल में न्याय पाने का अधिकार इससे प्रभावित होता है।
सवाल यह उठता है कि अगर दंगा-फसाद करने वालों के अधिकार मायने रखते हैं तो जनता के अधिकारों की भी तो चिंता की जानी चाहिए। सुरक्षा में लगे पुलिस के जवानों और अधिकारियों की भी चिंता की जानी चाहिए। अदालतों को किसी संवेदनशील मामले का स्वत: संज्ञान लेना चाहिए। इससे समाज को दिशा मिलती है लेकिन जब सरकार अपना दायित्व निभा रही हो, वह अदालत के आदेश और मंशा के अनुरूप दंगाइयों को सबक सिखा रही हो तब इस तरह की प्रतिक्रिया कर वह किसका साथ दे रही है। नागरिकता संशोधन कानून को लेकर सरकार सुस्पष्ट कर चुकी है कि इससे किसी की नागरिकता नहीं जाती बल्कि नागरिकता मिलती है। इसके बाद भी कुछ लोगों का हिंसक आंदोलन समझ से परे है।
लखनऊ में नागरिकता संशोधन विधेयक के खिलाफ हिंसक प्रदर्शन करने वालों के पोस्टर लगाना सही है या नहीं, इसपर सर्वोच्च न्यायालय की तीन सदस्यीय पीठ को निर्णय लेना है लेकिन इलाहाबाद हाईकोर्ट में इसे जिस तरह प्रदर्शनकारियों की निजता के अधिकार का हनन करार दिया, उसने उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार को बेहद असहज स्थिति में ला दिया है। इससे विपक्ष ही नहीं, आंदोलनकारियों को भी अपना पक्ष सही नजर आने लगा है। पोस्टर हटाने का न्यायालय का आदेश सरकार मान भी ले लेकिन आगजनी, तोड़फोड़ और पुलिस पर फायरिंग करने वालों का मनोबल बढ़ जाएगा।
सर्वोच्च न्यायालय की अवकाशकालीन पीठ ने उत्तर प्रदेश सरकार की चुनौती याचिका पर न केवल सुनवाई की बल्कि सरकार से यह भी जानने की कोशिश की कि उसने पोस्टर लगाने का निर्णय किस कानून के तहत लिया? सर्वोच्च न्यायालय ने भले ही हाईकोर्ट के निर्णय पर रोक नहीं लगाई लेकिन इस मामले को सर्वोच्च न्यायालय की तीन सदस्यीय पीठ को सौंप दिया। आगजनी, तोड़फोड़ और गोलीबारी के आरोपियों की निजता के अधिकारों की चिंता तो समझ आती है लेकिन आम लोगों के शांति से जीने के अधिकारों और उसकी निजता के अधिकारों की रक्षा कैसे होगी, विचार तो इसपर किया जाना चाहिए। सड़क पर परिवार के साथ निकले आदमी पर हमला हो जाए, उसके वाहन को आग लगा दी जाए या सरकारी संपत्ति को तहस-नहस कर दिया जाए, यह कहां तक उचित है? पहली बार किसी सरकार ने हिंसा करने वालों को वसूली का नोटिस दिया है। सीसीटीवी कैमरे की मदद से उनकी शिनाख्त और सफेदपोशों को बेनकाब करने की कोशिश की गयी है।
सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता की इस दलील में दम है कि कि विरोध-प्रदर्शन के दौरान बंदूक चलाने वाला और हिंसा में कथित रूप से शामिल होने वाला, निजता के अधिकार का दावा नहीं कर सकता। सर्वोच्च न्यायालय ने भी अंतत: यह माना कि कोर्ट राज्य की चिंता को समझ सकती है लेकिन कानून में हाईकोर्ट का फैसला वापस लेने को लेकर कोई कानून नहीं है। दंगे के आरोपियों के वकीलों ने सर्वोच्च न्यायाालय में अपना पक्ष रखा और कहा कि उत्तर प्रदेश सरकार के निर्णय से उनके लिए खतरा बढ़ गया है। कोई भी उनके घर में घुसकर या सड़क पर घेरकर उनपर हमले कर सकता है, उनकी हत्या कर सकता है। इन आरोपियों के तर्कों को भी खारिज नहीं किया जा सकता लेकिन इन लोगों को इसपर भी विचार करना चाहिए कि उस दिन जाम में फंसे आम आदमी पर क्या बीती होगी? सरकारी संपत्ति के नुकसान की तो नोटिस के जरिए अगर वसूली हुई तो फिर भी भरपाई हो जाएगी लेकिन आम आदमी जिनके घर, वाहन, प्रतिष्ठान इस दंगे की भेंट चढ़े, उनकी भरपाई कैसे होगी?
हाईकोर्ट की विशेष खंडपीठ ने नौ मार्च को 14 पेज के फैसले में राज्य सरकार की कार्रवाई को संविधान के अनुच्छेद-21 के तहत निजता के अधिकार के विपरीत करार दिया था। अदालत ने कहा था कि मौलिक अधिकारों को छीना नहीं जा सकता है। ऐसा कोई भी कानून नहीं है जो उन आरोपियों की निजी सूचनाओं को पोस्टर-बैनर लगाकर सार्वजनिक करने की अनुमति देता है, जिनसे क्षतिपूर्ति ली जानी है। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने यह भी कहा था कि सामान्यतया न्यायपालिका में आने पर ही अदालत को हस्तक्षेप का अधिकार होता है। निजता के अधिकार के हनन पर अदालत का हस्तक्षेप करने का अधिकार है। इस आदेश के बाद प्रदेश सरकार ने उच्चस्तरीय मंथन किया और उसने सुप्रीम कोर्ट में एसएलपी दाखिल की।
उत्तर प्रदेश के एडवोकेट जनरल राघवेन्द्र प्रताप सिंह भी मानते हैं कि पोस्टर में नाम और फोटो छापने को हाईकोर्ट का निजता के अधिकार का हनन बताया जाना ठीक नहीं है क्योंकि यह मामला निजता के अधिकार के तहत नहीं आता। यहां जो चीजें पहले से सार्वजनिक हैं उन पर निजता का अधिकार नहीं लागू होता। इस मामले में पहले से सारी चीजें सार्वजनिक हैं। दूसरा आधार अपील में मामले को जनहित याचिका बनाए जाने को लेकर है। यह मामला जनहित याचिका का नहीं माना जा सकता क्योंकि जनहित याचिका की अवधारणा उन लोगों के लिए है जो किसी कारणवश कोर्ट नहीं आ सकते। उनकी ओर से जनहित याचिका दाखिल की जा सकती है या फिर जिन मामलों में आबादी का बड़ा हिस्सा प्रभावित हो रहा हो, उसमें जनहित याचिका हो सकती है लेकिन मौजूदा मामला ऐसा नहीं है। मौजूदा मामले में प्रभावित लोग कोर्ट जा सकते हैं और रिकवरी नोटिस के खिलाफ कुछ लोग कोर्ट गए भी हैं, ऐसे में इस मामले को जनहित याचिका के तहत नहीं सुना जाना चाहिए।
दिसंबर 2019 में लखनऊ में सीएए विरोधी हिंसक प्रदर्शन हुए थे। इसमें कथित रूप से शामिल रहे 57 लोगों के नाम और पते के साथ शहर के सभी प्रमुख चौराहों पर कुल 100 होर्डिंग्स लगाए गए हैं। सभी लोग लखनऊ के हसनगंज, हजरतगंज, कैसरबाग और ठाकुरगंज थाना क्षेत्र के हैं। प्रशासन ने पहले ही 1.55 करोड़ रुपये की सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाने के लिए इन सभी लोगों को वसूली के लिए नोटिस जारी कर रखे हैं। देखना यह होगा कि सर्वोच्च न्यायालय की तीन सदस्यीय पीठ इसपर क्या निर्णय लेती है? लेकिन उसका निर्णय एक नए युग की शुरुआत जरूर करेगा, इसमें तनिक भी संदेह नहीं है।
(लेखक हिन्दुस्थान समाचार से संबद्ध हैं।)